सोलह सोमवार व्रत विधि और कथा


यह उपवास सप्ताह के प्रथम दिवस सोमवार को रखा जाता है| यह व्रत सोम यानि चंद्र या शिवजी के लिये रखा जाता है।

सोलह सोमवार व्रत विधि-

सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे प्रहर तक होता है । व्रत में फलाहार या पारायण का कोई खास नियम नहीं है किन्तु यह आवश्यक है कि दिन और रात में केवल एक ही समय भोजन करना चाहिए । सोमवार के व्रत में भगवान शंकर तथा पार्वतीजी का पूजन करना चाहिए । सोमवार के व्रत तीन प्रकार के हैं साधारण प्रति सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार, पूजाविधि तीनों की एक जैसी है । शिव पूजन के पश्‍चात् कथा सुननी चाहिए ।

सोलह सोमवार के दिन आप भक्तिपूर्वक व्रत करें, आधा सेर गेहूं के आंटे के तीन अंगा बनाकर घी, गुड, दीप, नैवेद्य, बेलपत्र, जनेऊ, चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि से प्रदोष काल में शंकर जी का पूजन करें, आंटे का एक अंगा शिव जी को अर्पित करें और दूसरा प्रसाद स्वरुप बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें, सत्रहवें सोमवार के दिन पाँव भर गेहूं के आंटे की बाटी बनाकर, घी और गुड का चूरमा बनाकर भगवान को भोग लगायें और खुद भी खाएं|

सोमवार व्रत कथा-

एक नगर में एक बहुत धनवान साहूकार रहता था, जिसके घर में धन की कमी नहीं थी । परन्तु उसको एक बहुत बड़ा दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था । वह इसी चिन्ता में दिन-रात लगा रहता था । वह पुत्र की कामना के लिये प्रत्येक सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था तथा सायंकाल को शिव मन्दिर में जाकर के शिवजी के सामने दीपक जलाया करता था । उसके उस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज, यह साहुकार आप का अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है । इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए ।

शिवजी ने कहा- "हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है । जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है । उसी तरह इस संसार में जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं।" पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा- "महाराज! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को दूर करते हैं । यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यो करेंगे?"

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे- "हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अति दुःखी रहता है । इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूँ । परन्तु यह पुत्र केवल १२ वर्ष तक जीवित रहेगा । इसके पश्‍चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा । इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नही कर सकता ।" यह सब बातें साहूकार सुन रहा था । इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ । वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा । कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवे महीने में उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई । साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नही की और न ही किसी को भेद ही बताया । जब वह बालक ११ वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूंगा । अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिए भेजूंगा । फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला करके उसको बहुत सा धन देकर कहा तुम उस बालक को काशी जी पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ ।

वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे । रास्ते में उनको एक शहर पड़ा । उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दुसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिये बारात लेकर आया था वह एक ऑंख से काना था । उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें । इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये । ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गये फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया । फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाय तो क्या बुराई है? ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूंगा तो उन्होनें स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया । परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक ऑंख से काना है और मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ । लड़के केजाने के पश्‍चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है । मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है । वह तो काशी जी पढ्ने गया है । राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी ।

उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुंच गए । वहॉं जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया । जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा- "मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है"। मामा ने कहा- "अन्दर जाकर सो जाओ।" लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए । जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना- पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा । अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया । संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे । जब उन्होने जोर- जोर से रोने की आवाज सुनी तोपार्वती जी कहने लगी- "महाराज! कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिए । जब शिव- पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा था । पार्वती जी कहने लगीं- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था । शिवजी कहने लगे- "हे पार्वती! इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प- तड़प कर मर जायेंगे।" पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया । शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत को चले गये ।

तब वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े । रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था । वहां पर आकर उन्होने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की साथ ही बहुत से दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया । जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि मैं पहले तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूँ । जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण खो देंगे । इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्‍वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथपुर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे । इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ।

सोलह सोमवार व्रत की दूसरी कथा-

मृत्युलोक में भ्रमण करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ भगवान महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे, वहां भ्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अति रमणीक नगरी में पहुंचे । अमरावती नगरी अमरापुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी । उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था । उसमे भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे । एक समय माता पार्वती ने प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली- "हे महाराज! आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलेंगे । शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे । उस समय इस स्थान पर मन्दिर का पुजारी ब्राह्मण मन्दिर में पूजा करने को आया । माताजी ने ब्राह्मण से प्रश्‍न किया कि पुजारी जी बताओ इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी । ब्राह्मण बिना विचरे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होई । थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई । अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उद्यत हुई । तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया । कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया । इस कारण पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा । इस तरह्के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सरायें शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर में पधारी और पुजारी के कोढ़ के कष्ट को देख बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूचने लगीं- "पुजारी ने निःसंकोच सब बातें उनसे कह दीं।" वे अप्सरायें बोलीं -"हे पुजारी! अब तुम अधिक दुखी मत होना भगवान् शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे । तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्त भाव से किया करो । पुजारीजी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा । अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करे स्वच्छ वस्त्र पहने आधा सेर गेहूँ का आटा ले उसके तीन अंगा बनावे और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान् शंकर का विधि से पूजन करे तत्पश्‍चात् अंगों में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी की प्रसादी समझकर उपस्थित जनों में बांट दें और आप भी प्रसाद पावें । इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करे । तत्पश्‍चात् सत्रहवे सोमवार के दिन पावसेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनावे तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुम्ब प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयीं । ब्राह्मण ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत किया तथा भगवान् शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा । कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राह्मण को निरोग देख पार्वतीजी ने ब्राह्मण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत की कथा कह सुनाई । तब तो पार्वती जी ने अति प्रसन्न हो ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछ कर व्रत करने को तैयार हुई । व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने यह विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले- "हे माताजी! आपने ऐसा कौन- सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ । तब पार्वतीजी ने वही षोडश सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई । स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा क्योंकि प्रियमित्र ब्राह्मण बहुत दुःखी दिल से परदेस गया है । हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है । कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया । मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले-"हे मित्र ! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था । अब तो ब्राह्मण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई । कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया । व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था । राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रृङ्गारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ अपनी प्यारी पुत्री का विवाह कर दुंगा । शिवजी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया । नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी । राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया गया ब्राह्मण को बहुत- सा धन और सम्मान देकर सन्तुष्ट किया । ब्राह्मण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्‍न किया । हे प्राणनाथ! आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़ कर आपको वरण किया? ब्राह्मण बोला-"हे प्राणप्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरूपवान पत्नी की प्राप्ति हुई है । व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्‍चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी । शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा और विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ । माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे । जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्‍न किया कि है मां तुमने कौन सा व्रत एवं तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ । माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान करके अपने किए हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि के सहित पुत्र को बताया । पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को और सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथा विधि व्रत करने लगा । उसी समय एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसको राजकन्या के लिए वरण किया । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया । वृद्ध राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राह्मण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत राजा के कोई पुत्र नहीं था । राज्य का उत्तराधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को करता रहा । जब सत्रहवा सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवपूजा के लिये शिवालय में चलने को कहा । परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह न की । दास दासियों द्वारा सब सामग्रियां शिवालय भिजवा दीं और आप नहीं गई । जब राजा ने शिवजी का पूजन समाप्त किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई राजा ने सुना कि हे राजा! अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी, आकाशवाणी को सुनकर राजा के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मन्त्रियों! मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी । राजसभाये, मन्त्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के कारण राज मिला है राजा उसी को निकालने का जाल रच रहा है, यह कैसे हो सकेगा? अन्त में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया । रानी दुःखी ह्रदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई । बिना पदत्राण फटे वस्त्र पहने भूख से दुखी धीरे-धीरे चल कर एक नगर में पहुंची । वहां एक बुढ़िया सूत कात कर बेचने को जाती थी । रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे । मै वृद्ध हूँ, भाव नहीं जानती हूँ। ऐसीबात बुढ़िया की सुन रानी ने बुड़िया के सिर से सूत की गठरी उतार कर अपने सर पर रख ली, थोड़ी देर बाद आंधी आइ और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया । बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया । अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण उसी समय चटक गये । ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया । इस प्रकार रानी अत्यन्त दुःख पाती हुई एक नदी के तट पर गई तो नदी का समस्त जल सूख गया । तत्पश्‍चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतरकर पानी पीने को गई उसके हाथ का जल मे स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के समान जल असंख्य कीड़ामय गंदा हो गया । रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पी करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा, वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिर जाते । वन सरोवर जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुसाईं जी से जो उस जंगल मे स्थित मन्दिर में पुजारी थे कही । गुसाईं जी आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुसाईं के पास ले गये । रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुसाईं जान गए कि यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कुलीन स्त्री है । ऐसा सोच कर पुजारी जी ने रानी से कहा कि है पुत्री मैं तुमको अपनी पुत्री के समान रक्खूंगा । तुम मेरे आश्रम में ही रहो मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा । गुसाईं के ऐसे वचन सुनकर रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहनी लगी । परन्तु आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरके लाती उसमें कीड़े पड़ जाते । अब तो गुसाईं जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी! तुम्हारे उपर कौन से देवता का कोप है, जिससे तुम्हारी ऐसी दशा है? पुजारी की बात सुन रानी ने शिवजी महाराज के पूजन वहिष्कार करने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी से बोले कि देवी तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी । गुसाईं की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत सम्पन्न किया और सत्रहवे सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के ह्रदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया न जाने कहां- कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिए । यह सोच रानी को तलाश करने के लिए चारों दिशाओं में दूत भेजे । वे दूत रानी को देखते हुए पुजारी के आश्रम में पहूँचे वहॉं रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया । तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाया । रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज! जो देवी जी आपके आश्रम में रहती हैं वह मेरी पत्‍नी है । शिवजी के कोप से मैंने उसको त्याग दिया था अब इस पर से शिव का प्रकोप शांत हो गया है । इसलिये मैं इन्हें लेने आया हूँ । आप इनको मेरे साथ जाने की आज्ञा दे दीजिए । गुसाईं जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी । गुसाईं जी की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ महल में आई, नगर में अनेक प्रकार के बधावे बजने लगे । नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे तथा नगर को तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से सजाया । घर-घर में मंगल गान होने लगे, पंडितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राज राजी का स्वागत किया । ऐसी अवस्था में रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया, महाराज ने अनेक तरह से ब्राह्मणों को दानादि देकर संतुष्ट किया । याचकों को धन-धान्य दिया । नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये । जहॉं भूखों लोगो को भोजन मिलता था । इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग करते सोमवार व्रत करने लगा । विधिवत् शिव पूजन करते हुए, इस लोक में अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्‍चात शिवपुरी को पधारे, ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्वारा भक्ति सहित सोलह सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है । यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।

॥इति सोलह सोमवार व्रत कथा॥


सोमवार व्रत की आरती-

आरती करत जनक कर जोरे। बड़े भाग्य रामजी घर आए मोरे॥
जीत स्वयंवर धनुष चढ़ाये। सब भूपन के गर्व मिटाए॥
तोरि पिनाक किए दुइ खण्डा। रघुकुल हर्ष रावण मन शंका॥
आइ सिय लिये संग सहेली। हरषि निरख वरमाला मेली॥
गज मोतियन के चौक पुराए। कनक कलश भरि मंगल गाए॥
कंचन थार कपूर की बाती। सुर नर मुनि जन आए बराती।
फिरत भांवरी बाजा बाजे। सिया सहित रघुबीर विराजे॥
धनि-धनि राम लखन दोउ भाई। धनि दशरथ कौशल्या माई॥
राजा दशरथ जनक विदेही। भरत शत्रुघन परम सनेही॥
मिथिलापुर में बाजत बधाई दास मुरारी स्वामी आरती गाई॥

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